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जहाँ तक मुझे ज्ञात है, रामायण, महाभारत आदि मान्य ऐतिहासिक ग्रंथो में, एक न एक ऐसा स्थान अवश्य पाया जाता है,

जहाँ तक मुझे ज्ञात है, रामायण, महाभारत आदि मान्य ऐतिहासिक ग्रंथो में, एक न एक ऐसा स्थान अवश्य पाया जाता है, जहाँ ऐतिहासिक महापुरुषों के प्रतीक स्वरुप कोई न कोई भवन व स्थल बनाया गया हो, यही बात ऐतिहासिक महापुरुषों के प्रतीक स्वरुप में अयोध्या में श्री राम का मंदिर कहता हु, मैंने कभी नहीं कहा की श्री राम की मूर्ति आदि को धुप दीप आदि से पूजा किया जाए। हाँ में शौर्य और पराक्रम से भरपूर हमारे ऐतिहासिक महापुरुष श्री राम के भव्य मंदिर के निर्माण का समर्थन करता हु, ये मेरा निजी विचार है, पता नहीं कुछ लोग मेरे इस निजी विचार को आर्य समाज विचारधारा से जोड़कर क्यों देखते हैं ? क्या मैं अपने निजी विचार साँझा नहीं कर सकता ? क्या नेपाल में माता जानकी का भव्य मंदिर नहीं है ? क्या महाभारत काल में महापुरुषों के लिए निर्मित स्थल नहीं होते थे ? क्या अर्जुन के रथ पर जो पताका थी उसमे अनेको महापुरुषों के प्रतीक चिन्ह प्रयोग नहीं किये गए थे ? क्या रामायण काल में परशुराम जी को दिया गया धनुष, जनक महाराज के महल की शोभा में पराक्रम के प्रतीक तौर पर नहीं रखा गया था ? क्या रामायण काल में इक्ष्वाकु वंश के...

"यज्ञ-प्रार्थना"

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"यज्ञ-प्रार्थना" हे यज्ञरूप प्रभो हमारे, भाव उज्ज्वल कीजिए। छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए॥१॥ वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें। हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें॥२॥ अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को। धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को॥३॥ नित्य श्रध्दा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें। रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें॥४॥ भावना मिट जाये मन से पाप-अत्याचार की। कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर नार की॥५॥ लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए। वायु जल सर्वत्र हो शुभ गंध को धारण किए॥६॥ स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो। इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हों ॥७॥ हाथ जोड़, झुकाए मस्तक, वंदना हम कर रहे। नाथ करुणा रूप करुणा आप की सब पर रहे॥८॥ हे पूजनीय प्रभो! हमारे, भाव उज्ज्वल कीजिए। छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए॥ प्रचंड प्रज्ज्वलित हुई हे यज्ञ की अग्नि! तू मोक्ष के मार्ग में पहला पग है......... ॥ओ३म्॥

ईश्वर स्तुति प्रार्थना मन्त्र:

"ओ३म् विश्वानी देव सवितर्दुरितानी परा सुव। यद् भद्रं तन्न् आ सुव॥१॥ (यजुर्वेद ३०/३) तू सर्वेश सकल सुखदाता, शुद्धस्वरूप विधाता है। उसके कष्ट नष्ट हो जाते, शरण तेरी जो आता है। सारे दुर्गुण दुर्व्यसनो से, हमको नाथ बचा लीजे। मंगलमय! गुण-कर्म-पदार्थ प्रेम- सिन्धु हमको दीजे। -मोहित आर्य